ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
पातिसाही १० ॥
त्व प्रसादि ॥ स्वय्ये ॥
दीनन की प्रतिपाल करै नित संत उबारि गनीमन गारै ॥
पच्छ पसू नग नाग नराधप सरब समै सभ को प्रतिपारै ॥
पोखत है जल मै थल मै पल मै कलि के नहीं करम बिचारै ॥
दीन दइआल दइआ निधि दोखन देखत है परु देत न हारै ॥१॥२४३॥
दाहत है दुख दोखन कौ दल दुज्जन के पल मै दल डारै ॥
खंड अखंड प्रचंड पहारन पूरन प्रेम की प्रीत संभारै ॥
पार न पाइ सकै पदमा पति बेद कतेब अभेद उचारै ॥
रोजी ही राज बिलोकत राजक रोख रूहान की रोजी न टारै ॥२॥२४४॥
कीट पतंग कुरंग भुजंगम भूत भविक्ख भवान बनाए ॥
देव अदेव खपे अहंमेव न भेव लखिओ भ्रम सिउ भरमाए ॥
बेद पुरान कतेब कुरान हसेब थके कर हाथ न आए ॥
पूरन प्रेम प्रभाउ बिना पति सिउ किन स्री पदमा पति पाए ॥३॥२४५॥
आदि अनंत अगाध अद्वैख सु भूत भविक्ख भवान अभै है ॥
अंति बिहीन अनातम आप अदाग अदोख अछिद्द्र अछै है ॥
लोगन के करता हरता जल मै थल मै भरता प्रभ वै है ॥
दीन दइआल दइआ कर स्री पति सुँदर स्री पदमा पति एहै ॥४॥२४६॥
काम न क्रोध न लोभ न मोह न रोग न सोग न भोग न भै है ॥
देह बिहीन सनेह सभो तन नेह बिरकत अगेह अछै है ॥
जान को देत अजान को देत जमीन को देत जमान को दै है ॥
काहे को डोलत है तुमरी सुध सुँदर स्री पदमा पति लैहै ॥५॥२४७॥
रोगन ते अर सोगन ते जल जोगन ते बहु भाँति बचावै ॥
सत्त्र अनेक चलावत घाव तऊ तन एकु न लागन पावै ॥
राखत है अपनो करु दै कर पाप संबूह न भेटन पावै ॥
और की बात कहा कह तो सौं सु पेट ही के पट बीच बचावै ॥६॥२४८॥
जच्छ भुजंग सु दानव देव अभेव तुमै सभ ही करि धिआवैं ॥
भूमि अकास पताल रसातल जच्छ भुजंग सभै सिर निआवैं ॥
पाइ सकै नही पार प्रभा हू को नेत ही नेतह बेद बतावैं ॥
खोज थके सभ ही खुजीआ सुर हार परे हरि हाथ न आवै ॥७॥२४९॥
नारद से चतुरानन से रुमना रिख से सभ हूँ मिलि गाइओ ॥
बेद कतेब न भेद लखिओ सभ हार परे हरि हाथि न आइओ ॥
पाइ सकै नही पार उमापति सिद्ध सनाथ सनंतन धिआइओ ॥
धिआन धरो तिह को मन मैं जिह को अमितोजि सभै जगु छाइओ ॥८॥२५०॥
बेद पुरान कतेब कुरान अभेद नृपान सभै पच हारे ॥
भेद न पाइ सकिओ अनभेद को खेदत है अनछेद पुकारे ॥
राग न रूप न रेख न रंग न साक न सोग न संगि तिहारे ॥
आदि अनादि अगाध अभेख अद्वैख जपिओ तिन ही कुल तारे ॥९॥२५१॥
तीरथ कोट कीए इसनान दीए बहु दान महा ब्रत धारे ॥
देस फिरिओ कर भेस तपोधन केस धरे न मिले हरि पिआरे ॥
आसन कोट करे असटाँग धरे बहु निआस करे मुख कारे ॥
दीन दइआल अकाल भजे बिनु अंत को अंत के धाम सिधारे ॥१०॥२५२॥